साँझ

जब कुछ ख़त्म होने को हो तो उसका होना मालूम होता है.

याद



बूंदे गिरी पते फड़ फाड़ने लगे
चारो तरफ काली घटा छाई
मिट्टी से सोंधी खुशबू उठी
रुकी हुई बरसात लौट आई

तन के साथ साथ मन भी गिला हुआ
जब जब तुम्हारी याद आई

मै जीत गया

क्या मै सूख रहा हूँ ?
क्या मै तैयार नहीं था ?
क्या मेरी शुरुवात कमजोर थी ?
क्या एसे ही मरते हैं लोग ?

एसे सवालों से मै जूझ रहा हूँ
इनके जवाब मेरे पास नहीं हैं.
इनके जवाब तलाश रहा हूँ.
मै अब इन सब से लड़ रहा हूँ.

शायद मेरे ये एहसास समाधान की शुरुवात हैं.
शायद "संघर्ष" ही इन सवालों के जवाब हैं.
शायद मैने रास्ता ढूंढ लिया है.
शायद मै जीत जाऊँगा.

हाँ, मै जीत गया...

आज से पाँच साल बाद, पचास साल बाद, पाँच हज़ार साल बाद

आज से पाँच साल बाद, पचास साल बाद, पाँच हज़ार साल बाद
मेरा बेटा, उसका बेटा या उसका बेटा
पूछेगा - नदी क्या होती है?
जवाब होगा - नदी बेटी, पत्नी और माँ की तरह होती है.
उसके किनारे सभ्यता और संस्कृति पनपती है.
फिर वो पूछेगा - कौन उठा लेगया उसे ?
जवाब होगा - किनारे की सभ्यता पीगई उसे
संस्कृति ने तबाह कर दिया.

आज से पाँच साल बाद, पचास साल बाद, पाँच हज़ार साल बाद
मेरा बेटा, उसका बेटा या उसका बेटा
पूछेगा - पेड़ क्या होता है?
जवाब होगा- पेड़ बेटा बाप और दादा की तरह होता है.
उसके सहारे लोग जीते हैं सांस लेते हैं.
फिर वो पूछेगा - कौन मार दिया उसे?
जवाब होगा - किनारे के लोगों ने मार दिया
सभ्यता ने बरबाद कर दिया

आज से पाँच साल बाद, पचास साल बाद, पाँच हज़ार साल बाद
मेरा बेटा उसका बेटा या उसका बेटा
पूछेगा - किनारे के लोग एसे क्यूँ थे?
और उस वक़्त उसके इस प्रश्न का किसी के पास कोई जवाब नहीं होगा .
क्या आपके पास है?

जब कुछ ख़त्म होने को हो.....

जब कुछ ख़त्म होने को हो तो उसका होना मालूम होता है..... वक़्त अपनी रफ़्तार से चलता है और दिल है की कहीं ठहर जाने को कहता है ......
साँझ.......एक ऐसा एहसास की सांसो को मद्धम कर दिल की धडकनों को अपनी स्याह आसमा में धीरे धीरे घुला ले.....मानो फिलवक्त सब कुछ रूक गया हो..........अब ये वाजिब लगे या गैरवाजिब इस नशे में घुल जाना दिल की फितरत है...............अलसाये हुए इक दिन की ये साँझ अपने साथ सब कुछ समेट के लिए जाती है.............और तब मालूम होता है उसका होना.

कुछ अनमने से अलसाये दिन

पता नही कब से मेरी नीद खुली थी... बिस्तर पर लेटा - लेटा ऊपर धीरे धीरे घूमते पंखो को देख रहा था। इन अध्जगी आखों में रात के खाब अबभी अपने अक्स छोड जा रहे थे।
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